KHAMOSH NAZAM
खामोश थी वो नज़म
मेहफ़ूज़ पड़ी थी अलमारी में कुछ सालों से
ऊन का एक गोला अटक गया था शायद
अलमारी में पड़ी साड़ी के सितारों से
बालों में कुछ अटक सा रहा था
सिमटा हुआ गोला पिघल सा रहा था
साड़ी रख अङ्कन छुड़ाई मैंने
लपेट लपेट ऊन, गोले की मोटाई बड़ाई मैंने
वापिस रखने को अलमारी जो खोली
रूबरू हुई इक तस्वीर मुझसे यूँ बोली
कब तक टूटे फ्रेम तले दबा रहूँगा
कब तक में यहां पड़ा रहूँगा
अब तो कांच भी चुभने लगा है
रह रह कर दम मेरा घुटने लगा है
वक़्त तो हर ज़ख्म भर देता है
क्यों दिल अब तक तनहा कर रखा है
अब तो आंसू भी सूखने लगे हैं
घर नया ढूंढने लगे हैं
बिखरे हुए कांच के नीचे एक शख्स का चेहरा था
सालों पहले रिश्ता एक गहरा था
जल चुका था, मोम के साथ जो धागा था
पाने को मुझे जो मीलों भागा था
तनहा थी, मैं अब तक बेनाम थी
न जाने क्यों, उसे देख, मेरे चेहरे पर आज मुस्कान थी
क्या हुआ जो तुम साथ छोड़ चुके हो
ख्वाबों में तो मुझे खुद से जोड़ चुके हो
शुक्रिया इस ऊन के गोले का
जो अटक गया था मेरे बालों से
सच ही तो हे, खामोश थी मैं अब तक
और मेहफ़ूज़ पड़े थे तुम, अलमारी में कुछ सालों से
मेहफ़ूज़ पड़े थे तुम अलमारी में कुछ सालों से।
- Jasmeet S Ahuja
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